विराट मन

विराट मन

विराट मन का प्रत्येक कण ज्ञान से परिपूर्ण है. यह जान लेने पर तुम खोजना बन्द कर देते हो.
तुम्हारी खोज तब तक है जब तक तुम गुरु के पास न पहुंचो. तालाब के किनारे तक ही तुम चल कर जाते हो, पर तालाब में तुम चलते या दौड़ते नहीं- तुम तैरते हो, बहते हो. गुरु के पास आ जाने पर खोज समाप्त हो जाती है, तुम खिल जाते हो, तुम्हारा विकास आरम्भ होता है.
तुम ज्ञान हो. तुम्हारा प्रत्येक कण ज्ञान से जगमगाता है. इसे ‘गो’ कहते हैं- ‘गो’ शब्द के चार अर्थ हैं : ज्ञान, गति, प्राप्ति और मुक्ति. ‘पाल’ का अर्थ है मित्र या रक्षक-रखवाला. तुम गोपाल बनो, ज्ञान में मित्र बनो. ज्ञान के आधार पर मित्रता बहुत कम होती है. मित्रता कुछ आपसी समानताओं के कारण होती है.
ज्ञान में मित्र बनो. ज्ञान में एक दूसरे को उन्नत करो. सत्संगी गोपाल होते हैं- ज्ञान में और ज्ञान के लिए एक दूसरे के सहायक. ज्ञान एक बोझ है/यदि यह तुम्हारा भोलापन ले ले/ज्ञान एक बोझ है/यदि यह तुम्हें विशेष होने का एहसास दिलाए/ज्ञान एक बोझ है/यदि यह तुम्हें महसूस कराये कि तुम ज्ञानी हो/ज्ञान एक बोझ है यदि यह जीवन में संकलित न हो/ज्ञान एक बोझ है/यदि यह प्रसन्नता न लाए/ज्ञान एक बोझ है यदि यह तुम्हें मुक्त न करे.
यदि तुम ईश्वर के प्रेम में हो, तब ज्ञान को पचा सकते हो, ग्रहण कर सकते हो. प्रेम भूख बढ़ाता है- सेवा व्यायाम है. प्रेम और सेवा के बिना ज्ञान अपाच्य हो जाता है. यहां सब-कुछ पुनरावृत्त होता है. पृथ्वी करोड़ों वर्ष पुरानी है-पहाड़, जल, हवा, सब-कुछ. अरबों लोगों ने उसी हवा की श्वास ली है. तुम भी पुनरावृत्त होते हो. तुम्हारे शरीर के सभी कण पुराने हैं, तुम्हारे विचार और भावनाएं पुनरावृत्त हैं, तुम्हारे मन भी पुनरावृत्त हैं. चेतना पुनरावृत्त है- वही पुरानी चेतना है.
अपने को याद दिलाओ कि यहां सब-कुछ पुनरावृत्त है और शान्त हो जाओ. पुनरावृत्ति फिर से शुद्धता और स्वच्छता लाती है. ज्ञान मन को पुनरावृत्त करता है. ज्ञान सब-कुछ नवीन रखता है. इसीलिए, इसी सृष्टि की बार-बार पुनरावृत्ति हो सकती है. प्रज्ञावान मन को सब-कुछ नवीन लगता है. यदि तुम ज्ञान में नहीं रहते, मन अशुद्ध होने लगता है. ज्ञान वापस मन को शुद्ध करता है. पुनरावृत्ति स्वच्छता और शुद्धता लाती है.
(प्रवचन के संपादित अंश ‘मौन की गूंज’ से साभार)

 
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